Monday 22 August 2011

आवारा__ मजाज लखनवी

शहर की रात और मैं नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ
जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूँ
गैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ ?
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?


ये रूपहली छांव ये आकाश पर तारों का जाल
जैसे सूफी का तस्सवुर, जैसे आशिक का हाल
आह ! लेकिन कौन समझे कौन जाने दिल का हाल ?
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?


रात हँस-हँस कर ये कहती है कि मैखाने में चल
फिर किसी शहनाज-ए-लालारुख के काशाने में चल
ये नहीं मुमकिन तो फिर ऐ दोस्त वीराने में चल
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?


रास्ते में रुक के दम ले लूँ, मेरी आदत नहीं
लौट कर वापस चला जाऊँ, मेरी फितरत नहीं
और कोई हमनवां मिल जाये, ये किस्मत नहीं
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

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