अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि !

चाहता था जब ह्रदय बनना तुम्हारा ही पुजारी
छीनकर सर्वस्व मेरा तब कहा तुमने भिखारी
आंसुओं से दिन-रात मैंने चरण धोये तुम्हारे
न भीगी एक क्षण भी चिर निठुर चितवन तुम्हारी
अब जब तरस कर पूजा भावना भी मर चुकी है
तुम चली मुझको दिखाने भावमय संसार प्रेयसि !

अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि !

अब मचलते है न नयनो में कभी रंगीन सपने
है गए भर से किये थे जो ह्रदय में घाव तुमने
कल्पना में अब परी बनकर उतर पाती नहीं तुम
पास जो थे स्वयं तुमने मिटाये चिन्ह अपने
दुखी मन में जब तुम्हारी याद ही नहीं बाकी कोई
फिर कहाँ से मैं करूं आरंभ यह व्यापार प्रेयसि !

अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि !

अश्रु-सी है आज तैरती याद उस दिन की नज़र में
थी पड़ी जब नाव अपनी काल के तूफानी भंवर में
कूल पर तब हो खड़ी तुम व्यंग्य मुझ पर कर रही थी
पा सका था पार मैं खुद डूब कर सागर-लहर मैं
हर लहर ही आज जब लगाने लगी है पार मुझको
तुम चली देने मुझको तब एक जड़ पतवार प्रेयसि !

अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि !