Monday 22 August 2011

रेत की मुट्ठी-सा ये जीवन - राय कूकणा

रेत की मुट्ठी-सा ये जीवन
फिसलने को आतुर है कण-कण।

वक्र पगों की चाल चलता
रेत के सागर में बहता
आँधियों के इस असर में
दिशाहीन पथिक-सा हर दिन।

रेत की मुट्ठी-सा ये जीवन

भतूलों ने घर छुड़ाया
कुछ देर आसमाँ छुआया
पटक धरा वक्ष पर फिर से
याद दिलाया माँ का आँगन।

रेत की मुट्ठी-सा ये जीवन

सावन बरसा जी लगाकर
धनक धमक से गगन सजाकर
पोखर नाले भरे नीर से
नृत्य नाद संग पुलकित यौवन।

रेत की मुट्ठी-सा ये जीवन

घूँट अभी एक ही भरी थी
जलधारा हो चली बिखरी थी
नदी यहाँ थी होकर गुज़री
पर रहा प्यास से व्याकुल ये मन।

रेत की मुट्ठी-सा ये जीवन

शुष्क पात सम पल ये पसरे
बरस-बरस सावन भी बिसरे
पुरवा चुप है बरखा रूठी
अब ढीली पकड़ ढूँढे अवलंबन।

रेत की मुट्ठी-सा ये जीवन
फिसलने वाला है कण-कण।

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