Monday 22 August 2011

हँसता हूँ मगर उल्लास नहीं - - ओमकृष्ण राहत

हँसता हूँ मगर उल्लास नहीं रोने पे मुझे विश्वास नहीं
इस मूरख मन को जाने क्यों ये जी बहलावे रास नहीं

अश्रु का खिलौना टूट गया मुस्कान की गुडिया रूठ गई
इस चंचल बालक-मन को मगर लुटे जाने का अहसास नहीं

सब बात बिगड़ने की एक आस निरास का चक्कर है
जो बिगड़ गई वो बात नही जो टूट गई वो आस नहीं

क्या भीगा भीगा मौसम था क्या रुत है फिकी फिकी सी
हम पहरो रोया करते थे अब एक भी आंशु पास नहीं

हिम्मत तो करो पूछो तो सही इस बगिया के रखवालों से
क्यों रंग नहीं है फूलों पे क्यों कलियों में बू बास नहीं

वो आ जाएं या घर बैठे कुछ इसमे ऐसा फ़र्क नहीं
ये मिलना जुलना रश्में है दिल इन रश्मों का दास नहीं

जब सारा जीवन बीत गया तब जीने का ढब आया है
वो जाएं तो कोई शोक नहीं वो आए तो कोई उल्लास नहीं

इस बॆरन बिरहा ने मेरा ये हाल बनाया है राहत
वो कबसे सामने बैठे हैं और आंखों पे विश्वास नहीं

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